सूर्य की किरणें जब सोलर पैनल के ऊपर गिरती हैं, तब पैनल उसके ऊपर गिरती हुई कुल सौर्य ऊर्जा के अनुपात में बिजली पैदा करता है। यह बिजली हमें सोलर पैनल के बाहर दिये हुए दो टर्मिनल पर मिलती है — पोसिटिव (+) और नेगेटिव (-) — जो सामान्यतः क्रमश: लाल और काले वायर से जुडते हैं। सोलर पैनल में सूर्य की किरणों से पैदा हुई बिजली हमेशा डी॰सी॰ होती है, जैसे किसी भी कार या घरेलू बैटरी की होती है।
पर हमारे घरों और फेक्टरीयों में हम ए॰सी॰ बिजली का उपयोग करते हैं, क्योंकि हमारे बहुत सारे बिजली के उपकरण ए॰सी॰ बिजली से ही चलते हैं। इसका मूल कारण यह है की बडी मात्रा में पावर सप्लाय को दूर दूर तक पहुंचाने के लिए ए॰सी॰ बिजली ज्यादा कारगर साबित हुई है। हमारे घरों में सामान्यतः २३० वोल्ट ए॰सी॰ की वायरिंग की जाती है, और उसीसे ही हमारे उपकरण चलते हैं — जैसे फैन, फ़्रिज, टी॰वी॰, इत्यादि।
तो सोलर पैनल से पाई हुई डी॰सी॰ बिजली को ए॰सी॰ बिजली में बदलना जरूरी होता है। जिस उपकरण से यह काम किया जाता है उसे सोलर इन्वर्टर (solar inverter) कहते हैं। सोलर इन्वर्टर में सामान्य बैटरी इन्वर्टर के अलावा कुछ और तकनीकी विशेषताएं भी होती हैं — जैसे कि अधिकतम सौर्य ऊर्जा का बिजली में परिवर्तन करना, सूर्य का प्रकाश न होने पर खुद ऑफ हो जाना, इत्यादि।
अब मान लीजिये के आपकी सोलर सिस्टम में ३७५ वॉट क्षमता की एक, ऐसी ६ सोलर पैनलें लगी हैं। याने कि आपके पास कुल ३७५ वॉट x ६ = लगभग २ किलोवॉट क्षमता की सोलर पैनलें हैं। तो इन पैनलों के साथ सोलर इन्वर्टर लगाने के दो तकनीकी विकल्प होते हैं:
(१) ६ सोलर पैनलों के बीच एक बडा-सा इन्वर्टर, या फिर
(२) हर सोलर पैनल का अपना एक छोटा माइक्रो-इन्वर्टर।
यह दो तकनीकी विकल्प नीचे दिये हुए चित्र में समझाये गए हैं:
इन दोनों में माइक्रो-इन्वर्टर लगाने की तकनीक — याने कि विकल्प (२) — ज्यादा सही है।
माइक्रो-इन्वर्टर में लगने वालीं अध्यतन ईलेक्ट्रोनिक सर्किटें और चिप्स पिछले दो-तीन सालों में ही विकसित की गई हैं। और खास बात यह है कि इन सर्किटों और चिप्स को सौर्य ऊर्जा के अधिकतम ग्रहण के हेतु से ही बनाया गया है। इन कारणों से माइक्रो-इन्वर्टर से बनी सोलर सिस्टम के कई लाभ ग्राहक को मिलते हैं, जो हैं:
- सिस्टम में कम पुर्ज़े होने से उसमें खामी आने की संभावना बहुत कम है।
- सिस्टम ज्यादा सालों तक सही चलती है – जिसका सचोट प्रमाण यही होता है ग्राहक को सिस्टम की लंबे समय की वारंटी मिलती है।
- सिस्टम की कार्यदक्षता (efficiency) बढती है, याने कि उसके ऊपर गिरती हुई सौर्य ऊर्जा का बिजली में २० से २५ प्रतिशत अधिक मात्रा में परिवर्तन होता है, सामान्य पैनल की बराबरी में ।
- कुल सौर्य ऊर्जा उत्पादन के अनुपात में सिस्टम की लागत कुछ १०-१५ प्रतिशत कम होती है।
- सिस्टम की वायरिंग सरल होती है, जिससे उसमें खामी आने की संभावना कम है। और यही 230 वॉल्ट वायरिंग घरों में भी होती है, जिससे इलेक्ट्रिशियन पूरी तरह से परिचित होते हैं।
- सिस्टम को बाहर की पावर सप्लाय, याने कि 'ग्रिड', के साथ जोडना आसान होता है।
- अगर एक ए॰सी॰ मॉड्यूल कुछ छाया में आ भी जाये, तो भी अन्य मॉड्यूलों पर उस छाया की असर नहीं होती, क्योंकि हर एक मॉड्यूल का बिजली उत्पादन स्वनिर्भर है।
- समय जाते सिस्टम में ए॰सी॰ मॉड्यूल जोडके उसे बढाने का काम बहुत आसान हो जाता है। इस सुविधा को "प्लग-ऐन्ड-प्ले" (plug-and-play) कहा जाता है। जैसे जैसे सिस्टम में मॉड्यूल जुडेंगे, वैसे साथ-साथ उनके माइक्रो-इन्वर्टर जुडते जायेंगे। पहिले लगी हुई सिस्टम में कुछ भी बदलना नहीं होता है।
ए॰सी॰ मॉड्यूल
जब एक सोलर पैनल के साथ ही, और बिलकुल उसके पीछे ही, उसका अपना माइक्रो-इन्वर्टर जोडते हैं, तो उस संयुक्त सिस्टम को ए॰सी॰ मॉड्यूल कहा जाता है। ए॰सी॰ मॉड्यूल को बक्से से निकाल कर धूप में रखने से ही उसका २३० वोल्ट ए॰सी॰ उत्पादन चालू हो जाता है।
ए॰सी॰ मॉड्यूल एक ऐसी सिस्टम है जो बहुत आसानी से जरूरी संख्या में घरों पर लगाई जा सकती है, और जो ऊपर बताए हुए कारणों से अतिशय लाभदायी भी साबित होती है। जैसे हमने देखा कि कुल २ किलोवॉट क्षमता की सिस्टम के लिए ३७५ वॉट की ६ ए॰सी॰ मॉड्यूल जोडनी हैं। अलग से इन्वर्टर लगाने का कोई सवाल नहीं होता।
इन सभी लाभदायक मुद्दों के उपरांत, आज एक और नई और अत्यंत उपयोगी तकनीक भी ए॰सी॰ मॉड्यूल के साथ ही आपको मिलती है, जिसे कहते हैं इंटरनेट ऑफ थिंग्स, याने कि आई॰ओ॰टी॰ (Internet of Things, IOT)। इस तकनीक के द्वारा आपकी हर एक ए॰सी॰ मॉड्यूल इंटरनेट के साथ जुडी होती है, और हर मॉड्यूल आपके अपने स्मार्टफोन के द्वारा आसानी से निगरानी और नियंत्रण में रहती है।
ग्रीन एनर्जी उत्पादन में 2022 तक भारत का लक्ष्य होगा पूरा!